Monday, March 26, 2012

उड़ चला वो आसमाँ की ओर.......


Thought and written with a perspective of a girl, who was talented but was deprived of freedom due to social orthodox........
 
आँखे खुली मेरी जब देखा मैने आसमाँ की ओर
कुछ तो अलग सा था वहा, नही दिखा कोई और छोर|
स्वच्छन्द रूप से उड़ते परिंदे, मैने उड़ते देखे थे,
मैं भी उड़ पाओगी एक दिन, ऐसे सपने देखे थे|

होश संभाला जब से मैने, खुद को घिरा हुआ सा पाया,
फ़र्क है कुछ मुझमे और भाई में, ऐसा मैने पाया|
खेलता था जब वो पार्क में, मुझे घर रोका जाता था,
चूल्हा चौका ही काम तेरा, मुझे बताया जाता था|


पर माँ थी मेरी बड़ी निराली, कहती थी पढ़ेगी मेरी बेटी,
डॉक्टर बन कर एक दिन लाएगी की कमाई मोटी|
भाई बना मेरा अभियन्ता, पर था असल में बड़ा धपोल,
मैं डॉक्टर तो बन गयी, पर नही समझी समाज के मन का भूगोल|
भाई चला गया विदेश, पैसा खर्च भी बहुत हुआ,
पर नंबर जब मेरा आया, माँ-बाप का फ़ैसला कुछ और हुआ|
 
नही जा सकती तू, घर से बाहर ऐसी बातें बहुत कही,
समाज के है दाएरे, कहती है माँ, बेटी तू समझे क्यो नही?
लड़की है तू, ज़माना है बहुत खराब, कहती है वो घड़ी घड़ी,
अनजान थी मैं भी, नही दिखी अदृश्य बेड़िया पैरो में पड़ी |

फ़ायदा क्या उस आज़ादी का जिसमे स्वंतंत्रता  नही,
कहते है हम खुद को नये ज़माने का पर संकुचित ह मानसिकता वही|
आज फिर आँख खुली है, देखा मैने जीवन की ओर,
में काबिल होकर भी हूँ घर में,और उड़ चला वो आसमाँ की ओर|